Wednesday, March 19, 2025
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जब ‘वल्लभ’ ने जाना ‘वल्लभ’ को, तब हुआ ‘पुष्टाभ्यास’ और व्रज को मिले श्रीनाथ एवं सूरदास !

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* मुग़लिया आतंक के बीच हुआ था ‘वैश्वानरावतार अग्नि का अवतार’

शंकराचार्य से माधवाचार्य तक भारी पड़ा वल्लभाचार्य का शुद्धाद्वैत सिद्धांत

‘चौरासी की चेन’ तोड़ने को दिए 84 ग्रंथ, 84 बैठकें व 84 शब्दों का मंत्र

आलेख : रवि शाह/कवि प्रकाश ‘जलाल’
अहमदाबाद। भव्य भारत न्यूज़ (BBN) के लिए यह अत्यंत गौरव का विषय है कि उसका शुभारंभ एक ऐसे अवतारी महापुरुष के अवतरण दिवस पर हो रहा है, जिसने 500-550 वर्ष पूर्व प्रवर्तक स्थापित धर्मों के व्यापक प्रचार अभियान के मध्य आदि व अंत से रहित सनातन धर्म में कोटि-कोटि जीवों को न केवल उद्धार का सरल मार्ग बताया, वरन् सहस्त्रों जीवों का उद्धार भी किया। यहाँ जीवों से तात्पर्य केवल मनुष्य से है, क्योंकि आत्म-कल्याण का अधिकार 84 लाख योनियों में विचरण करने वाले जीवों में एकमात्र मानव योनि के जीवों को ही है।
‘राष्ट्र – धर्म’ सर्वोपरि के मुख्य स्तंभ पर संस्थापित व आरंभ हुए बीबीएन में विशेष रूप से ‘GYNAA – RISE WITH ROOTS’ (ज्ञान – जड़ से उदित हों) श्रेणी रखी गई है और हमें इस बात को लेकर अत्यंत हर्ष हो रहा है कि इस कैटेगरी में अपने पाठकों को पहला परिचय एक ऐसे अवतारी पुरुष से कराने जा रहे हैं, जिन्होंने अपने नाम से द्वापर युग में विचरण कर चुके ‘वल्लभ’ के वास्तविक स्वरूप को पहचाना। जब वल्लभ ने स्वयं में वल्लभ यानी भगवान श्री कृष्ण के तात्विक रूप को पुष्ट किया, तो उन्होंने अपने इस मार्ग को पुष्टिमार्ग नाम दिया। यह वल्लभ का ही वरदान था कि वृंदावन वासियों को द्वापर के बाद पुन: भगवान कृष्ण श्रीनाथजी के स्वरूप में प्राप्त हुए, तो महान कृष्ण भक्त सूरदास ने अनेत्रावस्था में कृष्ण के दर्शन किए। यदि वल्लभ न होते, तो भारत को श्रीनाथजी व सूरदासजी जैसी विभूतियाँ कभी न मिलतीं।
जी हाँ ! हम बात कर रहे हैं महाप्रभु वल्लभाचार्य की, जिनका आज अर्थात् वैशाख कृष्ण 11, विक्रम संवत् 2077 (ચૈત્ર વદ 11, વિક્રમ સંવત્ 2076) अर्थात् 18 अप्रैल, 2020 को 542वाँ प्रागट्य दिवस है। जब विक्रम संवत 1535 में काशी (वाराणसी) निवासी तैलंग ब्राह्मण श्री लक्ष्मण भट्ट की पत्नी इलम्मागारु के गर्भ में वल्लभ का बीजारोपण हुआ, तब भारत में मुग़लों का शासन का और सनातन धर्मियों (हिन्दू धर्म) पर घोर अत्याचार हो रहे थे। मुग़लिया आतंक से त्राहि-त्राहि कर श्री लक्ष्मण भट्ट अपने सगे-संबंधियों के साथ कांकरवाड छोड़ने पर विवश हो गए। वे तत्कालीन मध्य प्रदेश (अब छत्तीसगढ) के रायपुर जिले के चंपारण्य नाक वन से होकर गुज़र रहे थे, तभी इलम्मागारु को प्रसव-पीड़ा हुई और एक निर्जन वन में विशाल शमी वृक्ष के नीचे वैशाख कृष्ण 11, विक्रम संवत् 1535 (ચૈત્ર વદ 11, વિક્રમ સંવત્ 1534) को अठमासे शिशु को जन्म दिया। यही शिशु भारत का महान संत बना, जिसने 84 लाख योनियों में भटकते जीवों के जीवन-मरण के चक्रव्यूह को तोड़ने के लिए 84 वैष्णव ग्रंथ, ८४ बैठकें और 84 शब्दों का ब्रह्म महामंत्र दिया।

जब स्वयं वल्लभ ने बचाए वल्लभ के प्राण

अधूरे माह में जन्मा नवजात शिशु निष्टेष्ट व संज्ञाहीन-सा ज्ञात हुआ। इसलिए यह मान लिया गया कि इलम्मागारु ने मृत बच्चे को जन्म दिया। मुग़लिया आक्रमण के संकट के चलते रात्रि के अंधकार में लक्ष्मण भट्ट ने शिशु का ठीक से निरीक्षण नहीं किया और बालक को मृत मान कर उसी शमी पेड़ के नीचे गड्ढे में रख दिया। उसे सूखे पत्तों से ढँक दिया और सभी लोग चौड़ानगर में जाकर रात्रि विश्राम करने लगे। थोड़ी देर बाद पिता लक्ष्मण भट्ट की इच्छा पुत्र को देखने की हुई और वे पुन: उसे देखने पहुँचे। वहाँ जाकर देखा तो लक्ष्मण भट्ट ईश्वरीय चमत्कार से हर्षित हो उठे। जिस बालक को वे मृत मान कर छोड़ आए थे, वह बालक मंद-मंद मुस्कुरा कर खेल मग्न था। पिता ने तुरंत अपनी पत्नी को बुला कर दृष्य दिखाया। माता का ममत्व जागा और उन्होंने बालक को उठा कर स्तनपान कराया। यह चमत्कार को देखने के बाद भट्ट दम्पति ने पुन: काशी लौटने का निश्चय किया।

महापुरुषों के गूढ़ सिद्धांतों के बीच दिया सरल सिद्धांत

भट्ट दंपति ने नवजात शिशु का नाम वल्लभ रखा और उसे प्रारंभ से भारतीय पुरातन वेद-वेदांत की शिक्षा दी। वल्लभ ने अनेक ग्रंथों का अध्ययन किया और वल्लभ अर्थात् श्री कृष्ण की भक्ति में लीन हो गए। उन्होंने पूर्वकालीन व तत्कालीन ज्ञानी महापुरुषों के अनेक गूढ़ सिद्धांतों के बीच भारत के साधारण जीवों को कृष्ण भक्ति, कृष्ण के समर्पित होने व कृष्ण स्वरूप बन जाने का सरल मार्ग दिखाया। जब वल्लभ के दिव्य चक्षुओं ने वास्तविक वल्लभ की पुष्टि की, तब पुष्टिमार्ग का उदय हुआ। वल्लभाचार्या शंकराचार्य के अद्वैतवाद, रामानुजाचार्य के त्रैतवाद, माधवाचार्य के द्वैतवाद तथा आचार्य निंबार्क के द्वैताद्वैतवाद से परे शुद्धाद्वैतवाद सिद्धांत दिया। वल्लभाचार्य ने प्रतिपादित किया, ‘आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक। आधिभौतिक ब्रह्म क्षर पुरुष है वही प्रकृति या जगतरूप है। आध्यात्मिक ब्रह्म अक्षर ब्रह्म है। जबकि आधिदैविक ब्रह्म परब्रह्म है। क्षर पुरुष से अक्षर ब्रह्म और अक्षर से भी श्रेष्ठ है परब्रह्म। इसी ब्रह्म को गीताकार ने पुरुषोत्तम ब्रह्म कहा है।’

समूची सृष्टि व सभी घटनाएँ केवल कृष्ण की लीला

वल्लभाचार्य ने ‘प्रभु का अनुग्रह ही पुष्टि या पोषण है’ कहने के साथ-साथ यह भी कह दिया कि जिन्हें पुरुषोत्तम कहा जाता है, वे और कोई नहीं, वरन् स्वयं लीलापुरुष कृष्ण है। कृष्ण को स्वयं को अंशरूप में जीवों में बिखराना आता है। पुरुषोत्तम कृष्ण की सभी लीलाएं नित्य हैं। यह सृष्टि, विश्व या संसार उन्हीं के क्रीड़ाभाव के कारण आविर्भाव और तिरोभाव के बीच उबरता-डूबता रहता है। वल्लभाचार्य ने जीव तीन प्रकार के बताए हैं। पुष्टि जीव जो कृष्ण के अनुग्रह पर भरोसा करते हैं। दूसरे मर्यादा जीव, जो शास्त्र के अनुसार जीवन जीते हैं और तीसरे वे जीव जो संसार के प्रवाह में पड़े रहते हैं।

जब वल्लभ ने श्रीनाथजी को पहचाना

कहा जाता है कि द्वापर में अवतरित हुए भगवान श्री कृष्ण ने व्रज-वृंदावन-गोकुल-मथुरा छोड़ते समय अपने भक्तों को वचन दिया था कि वे कलयुग में पुन: अवतार लेंगे। यदि वल्लभाचार्य नहीं होते, तो वल्लभ के श्रीनाथजी को कौन पहचानता ? भारत भ्रमण को निकले वल्लभाचार्य को स्वयं श्री कृष्ण ने स्वप्न में दर्शन देकर व्रज में अपने प्रागट्य की जानकारी दी। वल्लभाचार्य यात्रा बीच में ही छोड़ कर व्रज पहुँचे और जतीपुरा ग्राम पहुँचे। गाँव के लोगों की गायें प्रतिदिन गोवर्धन पर्वत पर जाकर कुछ दूध निकाल कर आती थीं। जतीपुरा के लोग आश्चर्यचकित् थे। जब वल्लभाचार्य पहुँचे और सभी ने गोवर्धन पर्वत पर खोजबीन की, तो पता चला कि गायें कृष्ण के श्रीनाथजी स्वरूप पर क्षीराभिषेक करती थीं। वल्लभाचार्य ने वहाँ भगवान श्रीनाथजी का मंदिर बनवाया। बाद में उनके वंशजों ने औरंगज़ेब से रक्षा के लिए श्रीनाथजी को राजस्थान में उदयपुर जिले के नाथद्वारा में प्रतिष्ठित किया।

वल्लभ नहीं होते, तो नहीं होता सूरदास का पुनर्जन्म

महान कृष्ण भक्त सूरदास के विषय में तो सबने सुना ही होगा। यदि वल्लभाचार्य नहीं होते, तो भारत भूमि को महान कृष्ण भक्त, कवि व संत सूरदास का वरदान नहीं मिलता। वास्तव में वल्लभाचार्य जब आगरा-मथुरा रोड पर यमुना के किनारे-किनारे वृंदावन की ओर आ रहे थे, तभी उन्हें एक अंधा दिखाई पड़ा, जो बिलख रहा था। वल्लभ ने ‘कहा तुम रिरिया क्यों रहे हो ? कृष्ण लीला का गायन क्यों नहीं करते ?’ इस पर सूरदास नामक उस नेत्रहीन ने कहा, ‘मैं तो अंधा हूँ, मैं क्या जानूँ लीला क्या होती है ?’ तब वल्लभाचार्य ने सूरदास के माथे पर हाथ रखा। कहा जाता है कि वल्लभाचार्य के सूरदास के सिर पर हाथ रखने मात्र से सूरदास के दिव्यचक्षु खुल गए और सूरदास के बंद नेत्रों के आकाश पर 5000 वर्ष पूर्व ब्रज में हुईं श्रीकृष्ण की सभी लीला-कथाएँ साक्षात् हो गईं। अब वल्लभाचार्य उन्हें वृंदावन ले लाए और श्रीनाथ मंदिर में होने वाली आरती के क्षणों में हर दिन एक नया पद रच नकर गाने का सुझाव दिया। इन्हीं सूरदास के सहस्त्रों पद ‘सूरसागर’ में संग्रहीत हैं। इन्हीं पदों का गायन आज भी धरती के कोने-कोने में, जहाँ कहीं श्रीकृष्ण को पुरुषोत्तम पुरुष मानने वाले रह रहे हैं, एक निर्मल काव्यधारा की तरह बह रहा है।
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