
विशेष टिप्पणी : कन्हैया कोष्टी
अहमदाबाद (15 मई, 2020)। कोई भी देश एक सुनिश्चित व निर्धारित व्यवस्था प्रणाली से चलता है, जिसे अक्सर लोग सिस्टम कहते हैं। भारत में भी स्वतंत्रता के बाद शासन-प्रशासन का एक सुनिश्चित व्यवस्था तंत्र लागू हुआ। यह व्यवस्था तंत्र कितना मज़बूत है ? इस प्रश्न का उत्तर प्राय: संकट के समय ही मिलता है।
भारत इस समय स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सबसे बड़े महामारी संकट कोविड 19 (COVID 19) का सामना कर रहा है। इस महासंकट में जब विश्व की बड़े-बड़े शक्तिशाली राष्ट्रों को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा, तब उन राष्ट्रों की तुलना में भारत यदि अभी भी कोरोना के कहर को क़ाफी हद तक क़ाबू में रखने में सफल रहा है, तो इसका मुख्य कारण हमारा सुदृढ एवं शक्तिशाली सिस्टम ही है, जिसने करोड़ों भारतीय नागरिकों की कोरोना से सुरक्षा की है। दूसरी ओर इसी सुदृढ़ व शक्तिशाली सिस्टम में रहे सुराखों ने सैंकड़ों दर्दनाक दास्तानों को भी जन्म दिया है।
आइए, सबसे पहले आपको बताते हैं कि केवल और केवल जनता की सेवा के लिए स्थापित हमारा सिस्टम यानी शासनिक-प्रशानिक व्यवस्था तंत्र क्या, कैसा है तथा किस प्रकार काम करता है ? वर्तमान भारतीय शासनिक-प्रशासनिक व्यवस्था कई स्तरीय है। वैयक्तिक व शासनिक स्तर पर देखा जाए, तो सर्वोच्च व शक्तिशाली व्यवस्थापक हैं राष्ट्रपति, परंतु निर्णय व क्रियान्वयन का सर्वोच्च अधिकार क्षेत्र प्रधानमंत्री के पास है। शासनिक व्यवस्था का दूसरा स्तर राज्यों में राज्यपालों व मुख्यमंत्रियों का है। यहाँ भी राज्यपाल सर्वोच्च व शक्तिशाली व्यवस्थापक हैं, परंतु निर्णय व क्रियान्वयन का सर्वोच्च अधिकार क्षेत्र मुख्यमंत्रियों के पास है। इससे नीचे जाएँ, तो शासनिक व्यवस्थाओं का और विकेन्द्रीकरण होता है, जहाँ जिला पंचायतें, महानगर पालिकाएँ, नगर पालिकाएँ, तहसील पंचायतें तथा ग्राम पंचायतें होती हैं। इसे हम निकाय-पंचायत स्तरीय व्यवस्था कहते हैं, जिसमें पंचायत-नगर पालिका अध्यक्ष से लेकर महापौर तक के लोग जनती की भलाई के लिए निर्णय करते हैं।
यह तो बात हुई शासनिक व्यवस्था की। इसके समानांतर ही चलती है प्रशासनिक व्यवस्था, जिसमें राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री के साथ कार्य करने वाले प्रधान सचिव से लेकर कई अधिकारी होते हैं, तो राज्यों में मुख्य सचिव, पुलिस महानिदेशक, जिलों में कलक्टर, महानगरों में पुलिस कमिशनर व म्युनिसिपल कमिशनर, नगरों में मुख्य अधिकारी तथा तहसीलों में तहसलीदार से लेकर गाँवों में पटवारी तक के अधीन लाखों अधिकारी-कर्मचारी जनता की सेवा को समर्पित होते हैं।
सिस्टम की सुदृढ़ता ने बचाई करोड़ों की जान

यह भारतीय शासन-प्रशासन व्यवस्था यानी सिस्टम का ही वरदान है कि कोरोना संक्रमण काल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (NARENDRA MODI) द्वारा राजधानी दिल्ली से घोषित हुआ लॉकडाउन कश्मीर से कन्याकुमारी तथा कच्छ से कामरूप-कटक तक एक साथ लागू हुआ। यह सिस्टम की सुदृढ़ता का ही परिणाम था कि केन्द्र सरकार के एक आदेश पर 130 करोड़ भारतीय घरों में बंद हो गए और देश में कोरोना का संक्रमण एवं कोरोना की चेन को नियंत्रित करने में काफी हद तक सफलता मिली तथा भारत आज कोरोना संक्रमण व मौतों के मामलों विकसित राष्ट्रों की तुलना में कहीं अधिक बेहतर स्थिति में है। यह सुदृढ़ व शक्तिशाली सिस्टम के बल पर ही हुआ कि केन्द्र सरकार का आदेश लागू करवाने के लिए सभी राज्य सरकारें, मुख्यमंत्री (CMs), पुलिस महानिदेशक (DGPs) के नेतृत्व वाला सिस्टम, जिला-महानगर-नगर-तहसील-ग्राम स्तरीय सिस्टम जुट गया, जिससे कोरोना संक्रमण को नियंत्रण में रखने के लक्ष्य को कुछ हद तक हासिल किया जा सका।
सिस्टम में सुराखों से उभरी दर्दनाक दास्तान

25 मार्च, 2020 से लागू किए गए लॉकडाउन के बाद 130 करोड़ लोग जहाँ थे, वहीं ठहर गए। इनमें जो घरों में थे, सक्षम थे, उन्हें तो अधिक परेशानियाँ नहीं हुईं, परंतु मुसीबतों का पहाड़ टूटा करोड़ों ग़रीबों व प्रवासी मज़दूरों पर। हर मज़दूर का अपना एक घर अवश्य होता है, परंतु पेट पालने के लिए उसे उस घर से दूर जाना ही पड़ता है। ऐसे में जब लॉकडाउन (LOCKDOWN) घोषित हुआ, तो मज़दूर सबसे पहले बेरोज़गार हो गए, फिर भूखों मरने की नौबत आने लगी। ऐसी स्थिति में उन्हें घर की याद आना स्वाभाविक है और समझदारी भी। यही कारण है कि जैसे ही सरकार ने मज़दूरों की घर वापसी की अनुमति दी, लाखों की तादाद में मज़दूर घरों की ओर निकल पड़े। कई मज़दूर तो अनुमति से पहले ही घरों की ओर पैदल निकल पड़े थे, तो सरकारी इजाज़त के बाद लाखों की तादाद में मज़दूरों ने कर्मभूमि वाले राज्य से अपने घर वाले राज्य की ओर पलायन शुरू किया। यहाँ भी सिस्टम की सुदृढ़ता व शक्ति के कई उदाहरण देखने को मिले, जिसमें केन्द्र सरकार ने श्रमिकों के लिए विशेष ट्रेनें शुरू कीं, तो राज्य सरकारों ने बसों की व्यवस्था की। इस व्यवस्था का लाभ करोड़ों श्रमिकों को मिला और वे भाग्यशाली थे, परंतु जो मज़दूर अज्ञानता या सिस्टम में सुराख के कारण यह सुविधा नहीं पा सके, वे 800 से 1200 किलोमीटर की पैदल यात्रा करते हुए घर वापसी करने लगे। कड़ी धूप, भूखे पेट, नंगे पाँव… मज़दूरों की दुर्दशा की अनेक दर्दनाक दास्तानों ने यदि जन्म लिया, तो इसके पीछे हमारे सुदृढ़ व शक्तिशाली सिस्टम में रहे सुराख ज़िम्मेदार हैं।
आख़िर मज़दूर किसकी ज़िम्मेदारी हैं ?

मज़दूरों के पलायन को लेकर नेताओं की बयानबाज़ी और राजनीति न तो घाव पर मरहम लगाने वाली है और न ही पाँव में पड़े छाले मिटाने वाली। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि आख़िर मज़दूर किसकी ज़िम्मेदारी हैं ? क्या केन्द्र सरकार व्यापक स्तर पर श्रमिक ट्रेनों के अतिरिक्त कोई और सुविधा देने में सक्षम थी ? कदाचित इसका उत्तर है, नहीं, क्योंकि यह ज़िम्मेदारी मुख्यत: राज्य सरकारों की होती है। ऐसी स्थिति में राज्य सरकारों ने भी बसें चलाईं, परंतु फिर सैंकड़ों मज़दूरों को कँटीली पदयात्रा क्यों करनी पड़ी ? जब ये मज़दूर सड़कों पर बदहवास अवस्था में पैदल घरों की ओर जा रहे थे, तो उस राज्य के मुख्यमंत्री, उनकी सरकार, उस राज्य का प्रशासन, उस जिले के कलेक्टर, प्रशासनिक अधिकारी, महानगर-नगर-पंचायत के पदाधिकारियों व अधिकारियों ने मीडिया में आ रही दर्दनाक व शर्मनाक तसवीरों पर संज्ञान क्यों नहीं लिया ? हमारे देश में सेवाभावी संगठनों की भरमार है। वे क्या कर रहे थे ? यद्यपि सेवाभावी संगठनों पर भी प्रश्न उठाना उचित नहीं है। संभव है कि मज़दूरों का धैर्य टूट गया। जो भी हो, दर्द आख़िर दर्द होता है। इस दर्दनाक व शर्मनाक पलायन से केन्द्र सरकार से लेकर राज्य सरकार और जिले से लेकर गांव तक की शासनिक-प्रशासनिक व्यवस्था यानी सिस्टम में व्याप्त सुराखों को दूर करना अनिवार्य है, ताकि भविष्य में भारत की भूमि पर 1947 जैसे विभाजन के पीड़ादायी पलायन की याद दिलाने वाली तसवीरें न उभरें।