आलेख : कवि प्रकाश ‘जलाल’
अहमदाबाद। हिन्दी में कहावतों का भंडार है। एक कहावत में कहा गया है, ‘हर किसी को दूसरे की थाली में घी अधिक दिकाई देता है।’ यह कहावत आज इसलिए स्मरण हो आई, क्योंकि सामान्यत: मनुष्य को अपना जो भी होता है, वह थोड़ा कम भाता है। इस वृत्ति के कारण कभी-कभी तो मनुष्य को अपने से अधिक दूसरों के बच्चे प्रिय लगने लगते हैं। मनुष्य कभी अन्य के बच्चों के साथ अपनी संतानों की तुलना भी करता है, ‘फलाँ का लड़का देखो, पहला नंबर लाया !’ या ‘वो लड़की देखो, पूरे स्कूल में फर्स्ट आई !’ आदि इत्यादि। मनुष्य सदैव अन्य की वस्तुओं की तुलना अपनी वस्तुओं के साथ करता है, परंतु ‘श्रीमद् भगवत गीताजी’ में भगवान श्री कृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं, ‘अपना जो भी है, उसे श्रेष्ठ मानिए।’ हाँ, अपना ही श्रेष्ठ मानने का अर्थ अभिमान या मिथ्याभिमान नहीं है, यह भी स्पष्ट है।
अब ‘शिवाम्बु’ नामक विख्यात स्वमूत्र चिकित्सा का नाम लगभग सभी ने सुना होगा। कदाचित आधुनिक पीढ़ी नहीं भी जानती होगी, परंतु पुरानी या नई पीढ़ियों के जो लोग ‘शिवाम्बु’ के विषय में जानते हैं, वे साधारणत: तो यह नाम सुनते ही नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं और यह स्वाभाविक भी है, परंतु ‘श्रीमद् भगवत गीताजी’ को समझें, तो प्रतीत होता है कि अपना उत्तम मानना चाहिए और अपने की कभी आलोचना नहीं करनी चाहिए। अपनी संस्कृति भी महान ही माननी चाहिए। ‘शिवाम्बु’ की ही बात करें, तो मूत्र की (दु:)गंध किसे भाएगी ? सभी उससे दूर भागते हैं। लोग स्वच्छता का ही आग्रह रखते हैं। लोग अपना आँगन स्वच्छ रखते हैं। गंदगी किसी को नहीं सुहाती। इसमें भी मूत्र की दुर्गंध तो सपने में भी सहन न हो, इतनी बुरी होती है। घर व निवास स्थान स्वच्छ रखना सबकी प्राथमिकता होता है, परंतु हमारे शास्त्रों ने बार-बार पुकार लगाते हुए कहा और बाद में विज्ञान ने भी सिद्ध किया है कि ‘शिवाम्बु’ पीने वाला व्यक्ति दीर्घायु व स्वस्थ जीवन जीता है। हमारे पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई तो ‘शिवाम्बु’ को अति महत्व देते थे ! कदाचित ‘शिवाम्बु’ का अपनी दिनचर्या में समावेश करने के कारण ही देसाई लगभग 99 वर्ष की दीर्घायु को प्राप्त हुए।
यद्यपि यहाँ विषय ‘शिवाम्बु’ नहीं है। चर्चा करनी है वर्तमान काल के तथा समूचे विश्व में काल बन कर तांडव कर रहे CORONA (COVID 19) वायरस की। बात यह कहनी है कि अब तक (कोरोना संकट से पहले तक) लोग स्वच्छता के के प्रति इतना अधिक जागृत नहीं रहते थे। लोग भोजन से पहले हाथ धोना भी कभी-कभी तो टालते थे। अधिकांश लोग कदाचित इस बात को अपनी दिनचर्या में शामिल ही नहीं करते थे कि भोजन से पहले हाथ विशेष रूप से धोने ही चाहिए। कुछ लोग तो चलते वाहन में यात्रा के दौरान दंगदी में भी भोजन करते थे, परंतु अब लगता है कि प्रकृति ने ही व्यवस्था कर दी है कि प्रत्येक को अपने हाथ-पैर स्वच्छ रखने चाहिए तथा अब तो सरकार ने भी कह दिया है, ‘साबुन से हाथ धोएँ।’
स्वधर्म ही सर्वश्रेष्ठ सुरक्षा कवच
आपके मन में प्रश्न उठ रहा होगा कि इस सारी कथा-वार्ता में, उसमें भी कोरोना वायरस के विषय में ‘श्रीमद् भगवत गीताजी’ कहाँ से आईं ? जी हाँ ! मैं इसी विषय पर आ रहा हूँ। ‘श्रीमद् भगवत गीताजी’ में श्री कृष्ण परमात्मा अर्जुन को संबोधित करते हुए एक सुदंर श्लोक कहते हैं :
श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह: || 35||
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह: || 35||
अर्थात्
अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।’
(स्पष्टीकरण : यहाँ धर्म का अर्थ हिन्दू-मुस्लिम जैसे विभिन्न धर्म, पंथ, बाड़े तक सीमित नहीं है। यहाँ धर्म का अर्थ स्व-धर्म, अपना धर्म, अपने आत्मा का धर्म, कर्तव्य का धर्म है।)
(स्पष्टीकरण : यहाँ धर्म का अर्थ हिन्दू-मुस्लिम जैसे विभिन्न धर्म, पंथ, बाड़े तक सीमित नहीं है। यहाँ धर्म का अर्थ स्व-धर्म, अपना धर्म, अपने आत्मा का धर्म, कर्तव्य का धर्म है।)
एक ज़माना था कि लोग विदेश जाने का विचार तक नहीं करते थे। विदेश गमन पाप माना जाता था। लोग स्वच्छ जल-वायु का आग्रह रखते, परंतु उसके बाद विदेशी हवा चली और लोग स्वेच्छाचार (स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंदता) में जा गिरे। विदेश तो गए ही, साथ ही वहाँ का रहन-सहन तथा वहाँ का खान-पान भी यहाँ (भारत में) लेते आए ! यहाँ (हमारे देश में) जहाँ नीम की घनी छाया होती थी, वहाँ ए. सी. आ गए। भोजन के बाद जहाँ हमारे देश में स्वास्थ्य-वर्धक मुखवास की परंपराएँ थीं, वहीं अब सिगरेट, बीड़ी, तम्बाकू-पान-मसाले प्रचलन में आए और लोग उसके आदी हो गए। यद्यपि इसका अर्थ यह भी नहीं है कि नवीनता या आधुनिकता का स्वागत नहीं होना चाहिए। हाँ, निश्चित ही नवीनता व आधुनिकता का स्वागत करना चाहिए, परंतु अपनी संस्कृति की बलि पर ? इस प्रश्न का उत्तर निश्चित ही ‘नहीं’ है, परंतु हुआ तो ऐसा ही है कि हमने हमारी संस्कृति की बलि देकर आधुनिक विज्ञान को अंगीकार किया है। कहा जाता है कि किसी भी राष्ट्र का नाश करना हो, तो सर्वप्रथम उसकी संस्कृति नष्ट कर देनी चाहिए। कुछ ऐसा ही हमारे देश के साथ हो रहा है और इी कारण हमारे पूर्वज जो निरंतर स्वच्छाग्रही थे, परंतु उनके वंशजों के रूप में हम स्वेच्छाग्रही-स्वेच्छाचारी बन गए तथा स्वच्छता सहित मानदंडों से दूर होते चले गए।
‘कोविड किलिंग क्रीड़ा’ पर भारी ‘गोविंद हीलिंग लीला’
यह भी एक विचित्र विडंबना ही है कि कोरोना की विकरालता के पश्चात भी लोग अब भी सार्वजनिक स्थानों पर मुँह-नाक आदि सफाई का आचरण कर रहे हैं। कुछ लोग यही मानते हैं कि बस स्टेशन तथा रेलवे स्टेश उनके नाक-मुँह साफ करने के सार्वजनिक स्थल या अड्डे हैं ! ऐसे लोगों को इतना भी भान या चिंता नहीं होते कि पास में बैठे व्यक्ति के नाक में उसका कचरा सीधा-सीधा प्रवेश करता है। लोग सार्वजनिक स्थानों पर जहाँ-तहाँ थूकते हैं। कई बार तो पैर कहाँ रखना, यह भी सोचना पड़ता है, ऐसी स्थिति होती है। सरकार के अच्छे प्रयासों से ग्रामीण क्षेत्रों में भी अब शौचालय बनने लगे हैं। इसलिए वहाँ गंदगी की स्थिति थोड़ी नियंत्रण में आई है, परंतु पूरी तरह तो नहीं ही आई है। इन तमाम बातों का अर्थ इतना ही होता है कि हमने ‘परम् धर्म’ को समझा ही नहीं है। इसीलिए कोराना वायरस फला-फूला ! अरे, कोरोना तो आए या न आए, परंतु लोग सार्वजनिक स्वच्छता नहीं रखें, तो आम आदमी बीमार तो पड़ने ही वाली है और इस महंगाई में बीमारी किसे पुषाएगी ? ‘श्रीमद् भगवत गीताजी’ में दिए गए उपदेश के अनुसार यदि लोग अन्यों का अनुकरण न करें, देखा-देखी से दूर रहें, तो कोरोना की क्या औक़ात थी ? परंतु लोग खान-पान में तथा अन्यों की जीवन-शैली की देखादेखी में निरंकुश व अनियंत्रित हो गए हैं। इतना ही नहीं, हाल में इतने बड़े संकट से व्यतीत हो रहे होने के पश्चात भी लोगों ने सार्वजनिक स्वच्छता को अभी तक, आज तक भी नकारा ही है। अब लोग रह-रह कर स्वच्छता के प्रति जागृत हुए हैं। यद्यपि अभी भी कई लोग ‘‘स्वधर्मे निधनं श्रेय, परधर्मो भयावह:’’ श्लोक को मात्र धर्म से जोड़ते हैं तथा उसे संकुचित बना देते हैं। धर्म चाहे जो हो, परंतु स्थल-काल व संस्कृति के विपरीत जीवन सदैव नर्क समान बन जाता है। ‘श्रीमद् भगवत गीताजी’ इस बात का स्पष्ट उद्घोष करती है, जिसे समझने की आवश्यकता है।
जब पड़ी कोविड की परछाई, तब तुलसी की याद आई..!
हम यहाँ कोरोना महामारी के आने को यह कह कर ‘अच्छा हुआ’ ठहराने का प्रयास नहीं कर रहे कि इससे लोगों में स्वच्छाग्रही बनने की जागृति आई है, अपितु हमें इस स्वच्छता को सदा के लिए अपनाना होगा। हाँ, यह कोरोना संकट कदाचित प्रकृति का कोई संकेत भी हो सकता है, यह भी एक विचार है। खान-पान तथा जीवन-पद्धति की तो आज दुर्दशा हो चुकी है। लोग बाहर खाते हैं और शौच के लिए घर में आते हैं। यह बात गंदी लगती है, परंतु वास्तविक है। मुझे सूती कपड़ा ही अनुकूल आता है, तो मैं कोई और कपड़े क्यों पहनूँ और शाकाहार में पर्याप्त तत्व प्राप्त होते हैं, तो मांसाहार क्यों करूँ ? हाँ, डॉक्टर ने ही कहा हो, तो अलग बात है, परंतु ऐसा तो बिल्कुल नहीं है कि मांसाहार में ही पोषक तत्व हैं और गाय के घी-दूध में या वनस्पति में नहीं हैं। कोरोना के उद्भव स्थान चीन में लोगों का खान-पान कैसा है ? उस विचित्रता में हम नहीं जाते। इसके बावज़ूद इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यदि चीन के अनुसार जिएँगे, तो हमारा भी पतन निश्चित है। हमारे महान भारत देश में युगों-युगों से तुलसी के पौधे की पूजा होती है, सूर्य नारायण की पूजा होती है, सुबह ज़ल्दी उठने की महिमा है। यह तो सब युगों-युगों से चला आ रहा है। आज नया नहीं है। नया तो यह है कि इसे अंध-विश्वास या पौराणिक मान्यताएँ कह कर उसकी निंदा की जाती है। इस कोरोना संकट के बाद हाल ही में एक भाई मुझसे तुलसी पके पौधे के विषय में पूछ रहे थे। उन्हें तुलसी का पौधा चाहिए था। मैंने उस भाई से सहजता से पूछा, “आप तो भारतीय संस्कृति के घोर विरोधी हैं और इस प्रकार तुलसी, सूर्य पूजा, होलाष्टक या शेष बहुत कुछ मानते नहीं हैं, तो अचानक क्यों तुलसी की आवश्यकता पड़ी ?” वे भाई बोले, “यार, तुलसी ही एक ऐसी वनस्पति है, जो सभी रोगों को भगा देती है !” यद्यपि मैंने उन्हें न केवल रास्ता बताया, अपितु तुलसी का पौधा भी लाकर दिया, परंतु मुझे उस भाई का दो वर्ष पुराना कथन अचानक याद आ गया। उन्होंने मुझसे दो वर्ष पहले ही कहा था, “तुलसी जैसी साधारण वनस्पति से रोग दूर हो जाते हैं, तो लोग दवाखाने क्यों जाएँ ? क्यों आप अंध विश्वास फैला रहे हैं !?” मैंने उन्हें दो वर्ष पहले उसी समय तुलसी की सभी वैज्ञानिकता समझाई थी, परंतु वे मानने को तैयार नहीं थे। अंतत: जब कोरोना वायरस आया, तो मुझसे पूछने आए कि कहीं से अच्छा तुलसी का पौधा लाकर दीजिए न !
कोविड ने पुन: महान सिद्ध की ‘गोविंद’ की महिमा
कहने का अर्थ यह है कि अब लोग समझने लगे हैं और अपने-आप भारतीय जीवन-पद्धति का स्वागत व सत्कार करने लगे हैं। हाथ मिलाने या गले लगने के स्थान पर अब लोग नमस्कार या नमस्ते से काम चलाते हैं। यह कोई साधारण बात नहीं है। व्यक्ति के लिए अपनी गंध-सुगंध-दुर्गंध कुछ भी बेकार नहीं है, परंतु अन्य का तो शत प्रतिशत बेकार है। आज तो चिकित्सा विज्ञान में लोग सर्जरी कराते हैं, तब डॉक्टर उसी मरीज़ की चमड़ी का उपयोग करते हैं ! हाँ, हृदय व किडनी आदि अन्य अंग जब बेकार हो जाते हैं, तो किसी दाता के अंग लेने की बात अपवाद है, परंतु अधिकांशत: तो प्रकृति की व्यवस्था ही ऐसी है कि हर व्यक्ति स्वयं में ही जी सकता है। भोजन नहीं करने वाले व्यक्ति का शरीर भीतर से ही भोजन ले लेता है और उसका अस्तित्व बना रहता है।
हम कामना करते हैं कि समग्र विश्व हमारी प्राचीन भव्य भारतीय संस्कृति आधारित जीवन-पद्धति को स्वीकारे और उत्तम सात्विक जीवन जिए। जीव-हिंस रोके, कम करे तथा जैसा कि विख्यात गुजराती कवि श्री उमाशंकर जोशी ने कहा है, ‘अन्य जीवों के अस्तित्व को भी स्वीकार करें।’ भारत यदि विश्व सत्ता बनाने वाला हो, तो उसका एक कारण भव्य भारत की भव्य संस्कृति पर आधारित श्रेष्ठ जीवन-पद्धति भी है। ईश्वर सभी को सद्बुद्धि दे।
(विशेष नोट: यह लेख गुजरात की राजधानी गांधीनगर से प्रकाशित गुजराती दैनिक गांधीनगर की ‘गांधीनगर समाचार’ के 25 मार्च, 2020 के संस्करण में प्रकाशित हो चुका है।)