Sunday, March 23, 2025
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पुण्यतिथि विशेष : जानिए सुनील दत्त की टिकट चेकर से ‘नायक’ पति व महानयक पिता बनने की कहानी

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आलेख : कवि प्रकाश ‘जलाल’, हिन्दी अनुवाद : राजेन्द्र निगम
अहमदाबाद (25 मई, 2020)। जब किसी कलाकार को स्क्रीन पर स्वयं के जीवन की ही कोई दुखद भूमिका निभानी पड़ती है, तो उसका दिल कांप उठता है। फिल्मों के दृश्यों में, नायक आमतौर पर हमेशा करामाती रूप से बचता हुआ जीतता है, लेकिन जब उसे वास्तविक जीवन में वैसी ही स्थिति का सामना करना पड़ता है, तो वह हांफता है, और अक्सर टूट जाता है। सुनहरे पर्दे पर दिखाई देता महानायक, शायद ऐसी घड़ी को वह दुर्भाग्यपूर्ण समझता है|
हिंदी फिल्मों यानी बॉलीवुड (BOLLYWOOD) के प्रसिद्ध अभिनेता सुनील दत्त को भी रील लाईफ से अलग ऐसी स्थिति का सामना रीयल लाईफ में भी करना पड़ा था । आज सुनील दत्त की पुण्यतिथि है, इसीलिए सुनील दत्त की रील लाईफ और रीयल लाईफ की अनजानी बातों को आपसे साझा कर रहे हैं |
फिल्म ‘मदर इंडिया’ में, प्रसिद्ध अभिनेत्री नरगिस के आग के दृश्य के दौरान बहुत जलने के बावजूद, बचाने के लिए किए गए वास्तविक प्रयास की घटना हो, या फिर उसी अभिनेत्री को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करने के कारण रास्ते में राज कपूर सहित कई कठिनाइयों का उभरना हो, या विवाह के बाद उसी अभिनेत्री को गले का भयानक कैंसर हुआ हो और तब उचित उपचार के बावजूद उस पत्नी की दर्दनाक मृत्यु हो गई हो या फिर उसके बाद बेटे संजय दत्त की ड्रग्स की लत और फिर अंडरवर्ल्ड के उसके साथ और उनके रिश्ते और फिर घर से हथियारों की बरामदगी और फिर कारावास – इन सब घटनाओं में, हिंदी फिल्म के इस महानायक को ‘दर्द का रिश्ता’ का अनुभव हुआ है। फिल्म चाहे ‘मदर इंडिया’ हो या ‘वक़्त’,  ‘मिलन’, ‘मेहरबान’, ‘हमराज़’, ‘साधना’, ‘सुजाता’, ‘नागिन’, ‘मुझे जीने दो’, खानदान’, ‘पड़ोसन’ या फिर वह ‘जानी दुश्मन’ हो, सभी फिल्मों में, इस अभिनेता ने बिना किसी कंजूसी के अपने अभिनय का सर्वस्व लुटा दिया है।

बलराज से सुनील हुए और शंकर की तरह कई दु:खों में अडिग रहे

सुनील दत्त (SUNIL DUTT) का वास्तविक नाम बलराज रघुनाथ दत्त था, लेकिन उन दिनों बलराज साहनी हिंदी फिल्मों में एक प्रसिद्ध अभिनेता थे, इसलिए उन्होंने अपना नाम सुनील रखा। उनका जन्म 6 जून, 1929 को वर्तमान पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में, झेलम जिले के खुर्दी गाँव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बचपन से ही उन्हें सात्विक संस्कार मिले थे।
जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, महबूब खान की फिल्म ‘मदर इंडिया‘ (MOTHER INDIA) में आग के एक दृश्य में, आग वास्तविक रूप से बेकाबू हो गई थी और तब फिल्म में उनकी माता की भूमिका निभानेवाली प्रसिद्ध अभिनेत्री नर्गिस को बचाने के लिए वे आग में कूद पड़े थे और गंभीर रूप से जल भी गए थे । अस्पताल में इलाज के बाद, सुनील दत्त और नरगिस दोनों ने  शादी करने का फैसला किया।
दो-दो बार के फिल्मफेयर अवार्ड विजेता, इस पद्मश्री कलाकार को फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट और फाल्के रत्न पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। जयहिंद कॉलेज के रहे इस स्नातक, ने राजनीति में भी प्रवेश किया और कांग्रेस के सांसद बनने के बाद 2004 से 2005 तक केंद्र सरकार के युवा मामलों और खेल विभाग में कैबिनेट स्तर के मंत्री के रूप में कार्य किया।
पर्दे पर आम आदमी की भावनाओं को सफलतापूर्वक व्यक्त करनेवाले इस अद्भुत अभिनेता की सबसे बड़ी पूँजी उनका सरल और मिलनसार स्वभाव था। जब उनकी पत्नी को गले के कैंसर का पता चला, तो उन्होंने आकाश-पाताल एक कर दिया और मददगार होने की वही स्थिति उस मामले में तब आई, जब उनके बेटे संजय को जेल जाना पड़ा।

संघर्ष व सुनील एक दूसरे के पर्याय बन गए

उन्हें बचपन से ही अभिनय का शौक था | इसलिए सुनील दत्त की नजरें मुंबई (MUMABI) की ओर लगी रहतीं। उन्होंने अपना बचपन यमुना नदी के किनारे बिताया और फिर लखनऊ चले गए। वहां वह अख्तर नाम धारण कर अमीनाबाद गली में एक मुस्लिम महिला के घर रहे | कुछ दिनों बाद वे मुंबई चले गए |
मुंबई में कोई उनका इंतजार तो कर नहीं रहा था |  इसलिए उन्होंने 120 रुपये प्रति माह के वेतन पर मुंबई परिवहन सेवा बस डिपो में चेकिंग क्लर्क की नौकरी कर ली। लेकिन उन्हें तो अपने अभिनय की चेकिंग करानी थी, इसलिए फिल्मोद्योग के चक्कर लगाने शुरू किए | ये चक्कर 1955 से 1957 तक चलते रहे और वे इस दौरान वे एक स्टूडियो से दूसरे स्टूडियो में भटकते रहे।

आवाज से रेडियो के श्रोताओं पर राज किया

दक्षिण एशिया में सबसे लोकप्रिय रेडियो सेवा के रूप में, रेडियो सीलोन की हिंदी सेवा 1950 के दशक में बहुत लोकप्रिय थी। निश्चित समय पर दर्शक इकट्ठे हो कर बैठ जाते और रेडियो सुनते । ऐसा दृश्य पूरे देश में लगभग घर-घर देखा जा सकता था। उन्होंने रेडियो सीलोन में एक उद्घोषक के रूप में अपना करियर शुरू किया और अपने काम के एक भाग के रूप में उन्होंने फिल्म अभिनेताओं के साक्षात्कार लेना शुरू किया। उन्हें इस तरह के प्रति साक्षात्कार के लिए 25 रुपये का भुगतान मिलता था।

 ‘रेलवे स्टेशन’ से ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ तक 99 फिल्में

सुनील दत्त द्वारा बॉलीवुड के चक्कर लगाने का फल अंत में 1955 में मिला। रेडियो सीलोन में सेवा देने का अनुभव काम आया और सुनील दत्त को रमेश सहगल की फ़िल्म ‘रेलवे स्टेशन’ में मुख्य भूमिका मिल गई। इस फिल्म में सुनील दत्त के किरदार का नाम राम था। हालांकि, फिल्म को बहुत बड़ी सफलता नहीं मिली और न ही सुनील दत्त को फिल्म उद्योग में पैर जमाने का मौका मिला। इतना ही नहीं, ‘रेलवे स्टेशन’ के बाद, सुनील दत्त ने चार और फ़िल्मों ‘कुंदन’, ‘राजधानी’, ‘किस्मत का खेल’ और ‘एक ही रास्ता’ में अभिनय किया, लेकिन दर्शकों पर उनकी छाप नहीं पड़ी ।
अंतत: 1957 में सुनील दत्त ने महबूब खान की फिल्म ‘मदर इंडिया’ से बॉलीवुड में अपना डंका बजा दिया | सुनील दत्त ने, निर्देशक महबूब खान की फिल्म ‘भारत’ में साहूकारों के शोषण के खिलाफ लड़ रहे एक गुस्सैल युवक की भूमिका निभाई थी। माँ की भूमिका में उस समय की ग्लैमरस अभिनेत्री नरगिस थीं। फिल्म के एक सीन में आग लग जाती है। शूटिंग के दौरान, आग वास्तव में नियंत्रण से बाहर हो गई और नरगिस आग में फंस गई। खान साहब सहित सभी की जान ऊपर-नीचे हो गई, लेकिन फिर सुनील दत्त किसका नाम…  वे आग में कूद पड़े और स्वयं गंभीर रूप से जल जाने के बावजूद नरगिस को उन्होंने बचा लिया गया। नरगिस पर भी आग की ज्वालाओं का असर हुआ था ।
अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद, दोनों ने शादी करने का फैसला किया और 11 मार्च, 1958 को उन्होंने शादी कर ली। 1955 में ‘रेलवे स्टेशन’ से अपने अभिनय करियर की शुरुआत करने वाले सुनील दत्त ने अपनी आखिरी सांस तक अभिनय किया। उसका नमूना है ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ जो 2003 में आई थी और सुनील दत्त का निधन 25 मई 2005 को हुआ था। हालाँकि, सुनील दत्त की मृत्यु के बाद भी, वे ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ में चित्रों के माध्यम से और ‘ओम शांति ओम’ में रिक्रिएशन के माध्यम से दिखाई दिए थे ।

‘बिरजू’ के नाम से प्रसिद्ध हुए सुनील दत्त

फिल्म ‘मदर इंडिया’ में बिरजू नाम के युवक का किरदार इतना मशहूर हुआ कि सुनील दत्त को देश भर में बिरजू के नाम से जाना जाने लगा। किसानों की जमीन हड़प कर उनका शोषण करनेवाले लाला जैसे साहूकारों पर गर्मजोशी से तिरछी नजरों से देखने या अपनी मां की फटकार सुनते हुए शिकायत करने वाली युवतियों पर टेढ़ी निगाहों से देखने की अदा बाद के किसी भी कलाकार में नहीं देखा गई।
भारत को हाल ही में आजादी मिली थी और उस समय साहूकारों के शोषण के खिलाफ देशव्यापी आक्रोश था और उसे महबूब खान साहब ने इस फिल्म में व्यक्त किया था और सुनील दत्त द्वारा इस चरित्र पर पूर्ण रूप से न्याय किया गया था। इसलिए देश भर के आम दर्शकों से लेकर फिल्म समीक्षकों तक ने सुनील के अभिनय की खुलकर तारीफ की।

तीन आयामों के बीच राजनैतिक संबंधों को बनाए रखा

सुनील दत्त ने हिंदी फिल्म का निर्माण, निर्देशन और अभिनय इस प्रकार तीन तरह के काम किए हैं। स्वतंत्रता के बाद का नया-नया दौर था इसलिए भारत में मुख्य रूप से कांग्रेस पार्टी का वर्चस्व था। इसलिए वे समाज सेवा की भावना के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए। इन तीन प्रकार के कार्यों के बीच भी उन्होंने अपने राजनीतिक संबंधों को बनाए रखा। कांग्रेस के नेताओं से लेकर शिवसेना सुप्रीमो बालासाहेब ठाकरे जैसे पूरी तरह विपरीत विचार-धाराओं के नेताओं के साथ भी सुनील दत्त ने उत्तम संबंध बनाए रखे |

पुत्र के कारावास योग में अभिनेता-पिता का विषाद योग

मुंबई में सन 1993 में बम विस्फोट हुए, उस के बाद सुनील दत्त के पुत्र संजय दत्त के घर की पुलिस-तलाशी हुई और उनके घर एके -47 राइफल मिली। अदालत में, संजय ने बचाव दिया कि वह इसे उन्होंने अपनी व पिता की सुरक्षा सुरक्षा के लिए ली थी। लंबे समय तक चल रहे मामले में संजय को दोषी ठहराया गया था और उन्हें जेल में रहना पड़ा । पिता सुनील दत्त के लिए ये दिन बहुत मुश्किल-भरे थे।
यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि तब उन्होंने हर नेता व मंत्री का दरवाजा खटखटाया | आखिरकार उन्होंने बाला साहेब ठाकरे से मदद मिली और इस तरह उन्हें राहत की सांस लेने का मौका मिला। अब तो आम जनता को भी ‘संजू’ जैसी फिल्म देख कर उस समय सुनील दत्त द्वारा भोगी पीड़ा का अहसास हो जाता है | लेकिन इस फिल्म के पहले तक उनके दर्द का अंदाजा किसी को नहीं था।

संवाद बोलने में भाषा की शुद्धता

सुनील दत्त किस स्तर के कलाकार थे, इसे कोई भी उनकी भाषा के स्पष्ट और सुंदर लहजे को सुनकर समझ जाता है । “सावन का महीना, पवन करे सोर…” गीत तो शायद एक नमूना है, लेकिन फिर भी उनके प्रत्येक संवाद में उनकी भाषाई स्वच्छता और तत्परता का परिचय मिलता है। उन्हें कभी किसी निर्देशक से नहीं पूछना पड़ा कि किस शब्द का सही उच्चारण क्या है। शायद उनकी रेडियो-सेवा का लाभ उन्हें इस तरह से मिलता होगा।
आज, बहुत कम हिंदी अभिनेता भाषा के महत्व को समझते हैं (कुछ निर्देशक उस ओर रुख भी नहीं करते हैं) लेकिन उन दिनों भाषा की तैयारी के बिना पर्दे पर आना संभव नहीं था। अभिनय भाषा का भी होता है और यह  सुनील साहब ने  समझाया। ऐसे सदाबहार महान अभिनेता को उनकी 15 वीं पुण्यतिथि पर भावभीनी श्रद्धांजलि।

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