भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का सबसे काला दिन — 25 जून 1975। वह दिन जब लोकतंत्र की आवाज को कुचल दिया गया, संविधान की आत्मा को घायल कर दिया गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देशभर में आपातकाल लागू कर दिया था। रातोंरात हजारों नेताओं, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया। उस दौर की पीड़ा आज भी लोकतंत्र प्रेमियों के दिल में जिंदा है।
आज जब आपातकाल के 50 साल पूरे हो रहे हैं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस मौके पर ट्वीट करते हुए लिखा — “यह दिन भारतीय लोकतंत्र के सबसे अंधेरे अध्याय की याद दिलाता है। उस समय लोगों के मौलिक अधिकार छीन लिए गए, मीडिया की स्वतंत्रता खत्म कर दी गई, और संविधान के मूल सिद्धांतों को रौंद दिया गया।”
जब राजघरानों की महिलाएं भी बनीं आपातकाल की कैदी
आपातकाल के दौरान सत्ता का डर इतना व्यापक था कि इसका शिकार आम नागरिक से लेकर राजघरानों तक को होना पड़ा। जयपुर की महारानी गायत्री देवी और ग्वालियर की राजमाता विजयाराजे सिंधिया भी इसके दंश से नहीं बच सकीं।
गायत्री देवी, जो उस समय संसद सदस्य थीं और स्वतंत्र पार्टी से जुड़ी थीं, उन्हें विदेशी मुद्रा नियमों के उल्लंघन के आरोप में दिल्ली लौटते ही 30 जुलाई 1975 को गिरफ्तार कर लिया गया। उनके बेटे भवानी सिंह को भी हिरासत में लिया गया। दोनों को तिहाड़ जेल में रखा गया, जहां गायत्री देवी को अन्य कैदियों से अलग कोठरी में रखा गया।
कुछ ही दिनों बाद, 3 सितंबर को ग्वालियर की राजमाता विजयाराजे सिंधिया को भी गिरफ्तार कर तिहाड़ लाया गया। दोनों को एक साथ रखने की योजना बनी, लेकिन गायत्री देवी ने इसका विरोध करते हुए कहा कि उनकी जीवनशैली अलग है। प्रशासन ने उनकी बात मानी और दोनों को अलग-अलग कोठरियों में रखा गया।
तिहाड़ जेल की सच्चाई और राजघरानों की पीड़ा
गायत्री देवी को जेल में किताबें, पत्रिकाएं और रेडियो की सुविधा मिल गई थी, लेकिन दूसरी ओर राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने अपनी आत्मकथा “प्रिंसेज” में तिहाड़ की बदतर हालत का विस्तार से वर्णन किया। वहां कैसे भोजन में मक्खियां भिनभिनाती थीं, रात में मच्छरों से नींद हराम होती थी और कैदियों की हालत दयनीय थी। शुरूआती समय में उन्हें अपने परिवार से मिलने तक की अनुमति नहीं थी।
बीमार पड़ने के बाद राजमाता को एम्स अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। वहां से उन्हें पेरोल पर रिहा कर दिया गया। वहीं गायत्री देवी ने अपनी रिहाई के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने राजनीति से संन्यास लेने और सरकार के कार्यों में सहयोग देने का वादा किया। इसके बाद 11 जनवरी 1976 को उनकी रिहाई हुई। गायत्री देवी ने कुल 156 दिन जेल में बिताए।
आपातकाल: एक कड़वी याद, लेकिन मजबूत लोकतंत्र की जीत
आज जब हम 50 वर्षों बाद उस दौर को याद करते हैं, तो यह सिर्फ पीड़ा की नहीं बल्कि लोकतंत्र की ताकत की भी कहानी है। प्रधानमंत्री मोदी ने उस दौर में संघर्ष करने वाले सभी नागरिकों को नमन करते हुए कहा कि — “उनका संघर्ष भारत की लोकतांत्रिक आत्मा को बचाने का प्रतीक है। अलग-अलग विचारधाराओं, क्षेत्रों और वर्गों के लोग एक साथ आए और इस तानाशाही व्यवस्था का डटकर मुकाबला किया।”
आखिरकार, जनता के इस असाधारण संघर्ष ने उस समय की कांग्रेस सरकार को झुकने पर मजबूर कर दिया। देश में चुनाव कराए गए और सत्ता से उखाड़ फेंका गया। इस जीत ने भारत को हमेशा के लिए यह सबक दे दिया कि लोकतंत्र में जनता ही सर्वोच्च है।
आपातकाल भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय जरूर था, लेकिन इससे उभरकर भारत ने यह साबित कर दिया कि यहां संविधान और स्वतंत्रता सबसे बड़ी ताकत है। आज भी यह घटना आने वाली पीढ़ियों के लिए लोकतंत्र की अहमियत का सबसे बड़ा उदाहरण है।